बसपा सुप्रीमो मायावती की राजनीति संकट में
बहुजन समाज पार्टी और उसकी मुखिया मायावती की ऊहापोह को लेकर उनके समर्थक दलितों में भी इस बार बेचैनी दिख रही है। बहिनजी के नाम से लोकप्रिय मायावती अपने तीन दशक के सियासी जीवन के सबसे कठिन दौर का सामना कर रही हैं। भाजपा, सपा और कांगे्रस तीनों पार्टियां चुनावी जंग में पहले ही कूद चुकी हैं। पर चुनावी पटल से बसपा अभी तक नदारद है। मायावती ने अभी तक तो अपनी एक भी रैली का एलान नहीं किया है। उधर उनके नेताओं में पार्टी छोड़ने की भगदड़ दिख रही है।पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा को 19 सीटें मिली थीं। रितेश पांडे बाद में 2019 में लोकसभा चुनाव जीत गए तो उन्हें विधानसभा सीट से इस्तीफा देना पड़ा। उपचुनाव में यह सीट सपा ने जीत ली। बची 18 में से फिलहाल पार्टी की सदस्य संख्या विधानसभा में तीन रह गई है। पिछले महीने विधायक दल के नेता शाह आलम उर्फ गुडडू जमाली ने बसपा से इस्तीफा देकर हर किसी को चौंकाया था। पार्टी छोड़ने के बाद जमाली की प्रतिक्रिया थी कि बसपा इस बार चुनावी मुकाबले में कहीं है ही नहीं। मुकाबला भाजपा और समाजवादी पार्टी के बीच है।दयनीय स्थिति के पीछे वजह तो भाजपा के प्रति मायावती का लगातार नजर आया नरम रवैया है। पिछले लोकसभा चुनाव में उन्होंने 1993 का इतिहास दोहराते हुए समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया था। यह गठबंधन अपेक्षित नतीजे तो बेशक नहीं दे पाया था पर मायावती को इसका फायदा ही हुआ था। लोकसभा के 2014 के चुनाव में जहां उनका खाता भी नहीं खुल पाया था, वहीं पिछले चुनाव में उन्हें दस सीटें मिल गई थी। लेकिन चुनाव परिणाम की घोषणा के तुरंत बाद मायावती ने सपा से गठबंधन यह कहकर तोड़ दिया था कि ऐसा करना उनकी भूल थी।लोकसभा चुनाव के बाद से मायावती ने केंद्र और उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकारों के खिलाफ कोई आंदोलन तक नहीं किया ना ही तीखी बयानबाजी की। इसके उलट वे समाजवादी पार्टी और कांगे्रस पर हमले करती रहीं। अगर उत्तर प्रदेश की सत्ता में वापसी कर पांचवी बार मुख्यमंत्री बनना उनका मिशन होता तो विपक्ष के बजाय निशाने पर सत्ता पक्ष को रखतीं। लोकसभा में अपने दल के नेता कुंवर दानिश अली को हटाकर पहले श्याम सिंह यादव और फिर रितेश पांडेय को उनकी जगह नेता बनाकर मायावती ने मुसलमानों और पिछड़ों को और नाराज किया था। मायावती के बारे में यह धारणा पिछड़ों और मुसलमानों में ही नहीं बल्कि दलितों में भी पनपने लगी है कि या तो भाजपा से उनका अनुराग है या वे डर रही हैं। डर अपने भाई आनंद की कंपनियों के खिलाफ चल रही आयकर और प्रवर्तन निदेशालय जैसी केंद्रीय एजंसियों की जांच की फिलहाल सुस्त दिख रही।लोकसभा चुनाव के बाद से मायावती ने केंद्र और उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकारों के खिलाफ कोई आंदोलन तक नहीं किया ना ही तीखी बयानबाजी की। इसके उलट वे समाजवादी पार्टी और कांगे्रस पर हमले करती रहीं। अगर उत्तर प्रदेश की सत्ता में वापसी कर पांचवी बार मुख्यमंत्री बनना उनका मिशन होता तो विपक्ष के बजाय निशाने पर सत्ता पक्ष को रखतीं। लोकसभा में अपने दल के नेता कुंवर दानिश अली को हटाकर पहले श्याम सिंह यादव और फिर रितेश पांडेय को उनकी जगह नेता बनाकर मायावती ने मुसलमानों और पिछड़ों को और नाराज किया था। मायावती के बारे में यह धारणा पिछड़ों और मुसलमानों में ही नहीं बल्कि दलितों में भी पनपने लगी है कि या तो भाजपा से उनका अनुराग है या वे डर रही हैं। डर अपने भाई आनंद की कंपनियों के खिलाफ चल रही आयकर और प्रवर्तन निदेशालय जैसी केंद्रीय एजंसियों की जांच की फिलहाल सुस्त दिख रही।