उत्तराखंड के नदियों के किनारे पनप रहा अतिक्रमण बनेगा तबाही का कारण, प्रशासन अनदेखी कर रहा है हाईकोर्ट का आदेश
बागेश्वर । ( नन्दा टाइम्स ) । प्रदेश में नदियों के किनारे पनप रहा अवैध अतिक्रमण फिर से बड़ी तबाही का कारण बन सकता है। विशेषज्ञों की मानें तो वर्ष 2013 की आपदा के बाद एक दशक बीत जाने पर भी हमने कोई सबक नहीं लिया है।पहिले मानसून में उत्तराखंड की बारी रही इस बार मानसून ने ठीक वैसा ही रंग हिमाचल में दिखाया है, जो हिमालयी राज्यों के लिए नए खतरे का संकेत है।
उत्तराखंड में 2015 से अब तक 7,750 अत्यधिक वर्षा और बादल फटने की घटनाएं दर्ज की गई हैं। मौसम विज्ञानी व आईएमडी के पूर्व उपमहानिदेशक आनंद शर्मा के अनुसार भले ही राज्य के लिए भूस्खलन और अचानक बाढ़ जैसी मौसम की घटनाएं असामान्य नहीं हैं, लेकिन तबाही के लिए नदी के किनारे अनधिकृत निर्माण को दोषी ठहराया गया है।इसमें पनपने में संबधित जिला प्रशासन जिम्मेदार है। वे ही अगर पनपने से पहिले सख्ती बरते तो ऐसा नहीं होता । ये अतिक्रमणकारी ही राजनैतिक रंग डालते है और नेता अपने वोट बैंक के चक्कर में उन्हीं अतिक्रमणकारियों के पक्ष में बोलने लग जाते है।
अगर हम बागेश्वर जनपद की बात करें तो यहां जिला मुख्यालय में दो किलोमीटर तक सरयू नदी व गोती नदी के किनारे आलीशान भवन व होटल बन गये है । स्थानीय लोगों ने आरोप लगाया कि जिला प्रशासन के उच्चधिकारी पदी किनारे बसे लोगों को पनपाने में मदद की है।
मौसम विज्ञानी व आईएमडी के पूर्व उपमहानिदेशक आनंद शर्मा ने जानकारी देते हुए बताया कि हिमालयी क्षेत्र में पूर्वी और पश्चिमी हवाओं के मिलन से अत्यधिक बारिश होती है। वर्ष 2013 में मौसम को जो चक्र उत्तराखंड में बना था, इस बार हिमाचल प्रदेश में बना है। उन्होंने बताया कि मानसून जाते-जाते सितंबर में भी कोई नया रंग दिखाए, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है।
विकास के नाम पर अवैज्ञानिक निर्माण
मौसम विज्ञानी आनंद शर्मा के अनुसार, नदियां हमेशा अपनी जगह को वापस ले लेती हैं। नदियों के किनारे अतिक्रमण मौसम विज्ञान से जुड़ा विषय नहीं है, लेकिन मौसम बिगड़ने पर तबाही का बड़ा कारण जरूर है। सरकारें सब कुछ जानती हैं, लेकिन असंवेदनशील हैं। प्रदेश में नदियों के किनारे अवैध निर्माण सरकार की नाक के नीचे ही नहीं, खुद सरकारों ने भी किया है। रिस्पना नदी में विधानसभा भवन, कई सरकारी कार्यालय, शैक्षणिक संस्थान इसके उदाहरण हैं। सितंबर, 2022 में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने देहरादून में नदी किनारे अतिक्रमण को हटाने के आदेश दिए थे, लेकिन सरकार ने इस पर अमल नहीं किया।
पर्यावरणविद् व चारधाम परियोजना पर सुप्रीम कोर्ट की ओर से नियुक्त उच्चाधिकार प्राप्त समिति (एचपीसी) के सदस्य हेमंत ध्यानी के अनुसार उत्तराखंड में लोगों ने नदी किनारे अवैध रूप से अतिक्रमण किया है और सभी प्रकार की संरचनाओं का निर्माण किया है। इन बसावटों में अदालतों के तमाम अदेशों के बाद भी सरकार नियंत्रण नहीं कर पा रही है। फिर वर्ष 2013 जैसी आपदा आई तो इस बार नुकसान उससे कहीं अधिक होगा। ध्यानी ने कहा, अवैध अतिक्रमण सिर्फ प्रमुख नदियों के किनारे ही नहीं, बल्कि उनकी सहायक नदियों, छोटी नदियों और नालों पर भी हुआ है।
200 मीटर के नियम की उड़ रहीं धज्जियां
अगस्त 2013 में हाईकोर्ट ने राज्य की सभी नदियों के 200 मीटर के भीतर सभी निर्माण गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया था। अदालत ने यह आदेश ऋषिकेश निवासी सामाजिक कार्यकर्ता संजय व्यास की ओर से दायर एक जनहित याचिका पर पारित किया था। लेकिन इस नियम की भी धज्जियां उड़ रही हैं।
एनजीटी का आदेश भी नहीं माना
दिसंबर 2017 के एक आदेश में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने निर्देश दिया था कि पर्वतीय इलाकों में गंगा के किनारे से 50 मीटर के भीतर आने वाले क्षेत्र में किसी भी निर्माण की अनुमति नहीं दी जाएगी और न ही कोई अन्य गतिविधि की जाएगी। यहां 50 मीटर से अधिक और 100 मीटर तक के इलाके को नियामक क्षेत्र के रूप में माना जाएगा। मैदानी क्षेत्र में जहां नदी की चौड़ाई 70 मीटर से अधिक है, उस स्थिति में नदी के किनारे से 100 मीटर का क्षेत्र निषेधात्मक क्षेत्र के रूप में माना जाएगा।