हिमालय से छेड़छाड़ करोगें तो परिणाम भयावह होगें

उत्तराखण्ड में हिमालय बचाओं कई एनजीओ व सरकार मिलकर अभियान चलाकर पर्यावरण के नाम पर करोड़ो का बजट डकार रहे है यह केवल अपने स्वार्थ के लिए कर रहे है न कि निस्वार्थ भाव से ऐसा कई सालों से कर रहे है लेकिन ढाक के वही तीन पात । तन,मन से कोई नहीं है भाषण बाजी व दिखवा है। अनेको एनजीओ है क्या कर रही है। उनका काम व नाम केवल मीडिया में आए और पैसे बटोरने के अलावा कुछ भी नहीं है । सरकारे भी इस मीड़ में शामिल हो जाती है करती कुछ नहीं , बुग्यालों में कचरे का ढेर लगा रहता है इससे उन्हें कोई लेना देना नहीं ।
अभी तो यह छोटा ग्लेशियर टूटा है। यदि अब भी हम नहीं चेते और ग्लोबल वार्मिंग के फलस्वरूप वृहद ग्लेशियर पिघल गया तो वह वास्तविक रूप में प्रलय ही होगा।हर पर्यटन एवं धर्मस्थल तक मोटर से पहुंच जाने हेतु सड़कें बन रही हैं। हेलीकाप्टरों की गड़गड़ाहट, मोटरों का धुआं, पालीथिन का कचरा, पेड़ों की कटान, पन बजली परियोजनाओं को संचालित करने हेतु नदियों की धाराएं मोड़ने के दुरूह तथा प्रकृति विरोधी कार्य चरम पर हैं। तीव्र गति से पक्के निर्माण हो रहे हैं। समाजशास्त्रियों, पर्यावरणविदों और स्थानीय निवासियों की आवाज नजरअंदाज की जा रही है। ु वन, पर्वत, समुद्र और आकाश को विद्रूप करने की आज संसार में होड़ लगी हुई है। यह तो आपत्तिजनक है ही। बात पर्वतों और अपने देश की, जहां हिमालय पर चमोली जिले में ऋषिगंगा पनबिजली परियोजना पर ग्लेशियर टूट गया है और भारी त्रसदी हो गई है।मालूम हो कि अंतरिक्ष स्थित मानवता के रक्षा कवच ओजोन की परत में छिद्र हो चुके हैं। हमें तुरंत सतर्क हो जाना चाहिए।

टिहरी । हिमालय का संकट गहर ा रहा है। यह संकट हमारे अस्तित्व का है। इस संकट से पार न पाया गया तो पहाड़ खाली हो सकते हैं। खेत फसल देने से मना कर सकते हैं। नदियों का पानी कम हो सकता है।स्वस्थ पहाड़ी जीवन में बीमारियां पैर जमा सकती हैं। अनाज की कमी हो सकती है। भूस्खलन और अचानक आने वाली बाढ़ एक डरावने सपने की तरह पीछा कर सकती है। जून 2013 की आपदा से ठीक दो साल पहले भी उत्तराखंड ने बरसात की मार झेली थी।पूरे राज्य में इतनी बरसात हुई कि करीब 14 हजार किमी सड़क ध्वस्त हो गई। पहाड़ की लाइफ लाइन मानी जाने वाली सड़कों का जाल टूटा तो पहाड़ का जैसे दम ही घुट गया था।इस आपदा से राज्य उबर भी न पाया था कि जून 2013 की विभीषिका ने जैसे राज्य की कमर ही तोड़ कर रख थी। हजारों का जीवन संकट में था और काफी लोगों ने अपनी जान गंवाई।केदारनाथ में औसत से ज्यादा बरसात और चोराबाड़ी झील के फटने से रामाबाड़ा तो नक्शे से गायब ही हो गया। पर्यटन प्रदेश उत्तराखंड को करीब 25 हजार करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ा। इस त्रासदी की गूंज यहीं नहीं, पूरे देश में सुनाई दी थी। यह दो उदाहरण काफी है यह बताने के लिए कि हिमालय का संकट किस कदर गहरा होता जा रहा है। इंटरनेशनल पैनल फॉर क्लाइमेट चेंज ने हाल ही में यह चेतावनी भी दी कि मौसम बदलाव के कारण बादल फटने, अचानक आने वाली बाढ़, तेज बरसात, सूखे जैसी घटनाओं में इजाफा होगा। उत्तराखंड में यह देखने को मिल भी रहा है। मिट्टी का कटाव प्रदेश के लिए समस्या बन गया है। ऐसे में तेज बरसात भूस्खलन की घटनाओं में तेजी से इजाफा कर रही है। लोग हिमालय बचाओं एक नौटंकी कर रहे है लेकिन तन,मन से कोई नहीं है भाषण बाजी व दिखवा है। अनेको एनजीओ है क्या कर रही है। उनका काम व नापम केवल मीडिया में आए और पैसे बटोरने के अलावा कुछ भी नहीं है । सरकारे भी इस मीड़ में शामिल हो जाती है करती कुछ नहीं , बुग्यालों में कचरे का ढेर लगा रहता है आजतक किसी ने कुछ किया ।अब एक बार फिर से हिमालय इंसानों से जरूर बदला लेगी तब लोगों की समझ में आयेगी ।