उत्तराखंड में छिड़ा भू-कानून आंदोलन, युवाओं ने कहा नहीं बिकने देगें अपनी जमीनें
उत्तराखंड में हिमाचल की तर्ज पर हो भू-कानून
उत्तराखंड क्रांति दल ने राज्य में अनुच्छेद- 371 लागू करने की मांग को लेकर कलेक्ट्रेट में प्रदर्शन किया। साथ ही मांगों से संबंधित ज्ञापन जिलाधिकारी को सौंपा। वरिष्ठ नेता जयप्रकाश उपाध्याय ने कहा कि राज्य गठन के बाद नियोजन एवं नीतियां राज्य आंदोलनकारियों की भावनाओं के अनुरूप नहीं बन पाई हैं। आज भी पूरा राज्य विकास से कोसों दूर हैं। राज्य के मूल निवासी यहां के प्राकृतिक संसाधनों से भी दूर हो गए हैं। राज्य में कई प्रकार के माफिया सक्रिय हैं। भू-माफियाओं ने तो यहां के जंगल, कृषि और नजूल भूमि पर कब्जा कर लिया है। इसे तत्काल रोके जाने की जरूरत है। कहा कि राज्य में अनुच्छेद-371 लागू करना आवश्यक हो गया है।
राज्य सरकार प्रस्ताव बनाकर अनुच्छेद-371 में प्रावधान कराए कि राज्य में शिक्षा, रोजगार एवं भूमि पर केवल राज्य के लोगोें का अधिकार हो। दूसरे राज्यों के लोगों द्वारा की जा रही जमीनों की खरीद फरोख्त पर रोक लगाई जाए।
बागेश्वर । उत्तराखंड में हिमाचल की तर्ज पर भू-कानून की मांग इन दिनों राजनीतिक मुद्दा इतना गरमा रहा है. इससे उत्तराखंड की इस भू-कानून की मांग में उन लोगों को भी ऊर्जा मिली है, जो पिछले लंबे समय से इसकी लड़ाई लड़ रहे हैं.।
आपको बताते हैं उत्तराखंड में छिड़ा भू-कानून आंदोलन इस बार उत्तराखंड के युवाओं ने भू-कानून की मांग की जिम्मेदारी अपने हाथ में ले ली है.। दरअसल, खाली होते उत्तराखंड के गांव, कम होते रोजगार और पलायन के बाद यहां पर लगातार बाहरी लोगों का आगमन चरम पर है, जिसके कारण यहां बड़ी संख्या में जमीनें खरीदी और बेची जा रही हैं.ं सबसे ज्यादा खतरा दूसरे समुदाय के लोग बड़ी तेजी से देवभूमि में जमीन खरीदने में लगे है वे ऊंचे दाम पर भी जमीन खरीद रहे है उन्हें केवल यहां पर जमीन खरीदकर रहने का ठिकाना चाहिए अगर इस पर तुरन्त रोक न लगे तोदूसरा कश्मीर न बन जाय जिनकी पुस्तैनी जमीन है कहीं उन्हें यहां से इस समुदाय के खौब से पलायन न होना पड़े । पूर्व सीएम हरीश रावत भी इनके समर्थन में जुटे हुए थे वह तो अच्छा हुआ कि दोनों सीट से उनका सफाया हो गया । उत्तराखंड में हिमाचल की तरह एक सख्त भू-कानून की मांग को लेकर पिछले कई सालों से अभियान चला रहे सागर रावत बताते हैं कि यह लड़ाई उत्तराखंड के जल-जंगल-जमीन, संस्कृति, रोटी-बेटी और हक हकूक की लड़ाई है. । कई युवा संगठन भू कानून को लेकर सरकार से लड़ाई लड़ने के लिए तैयार है।
2022 विधानसभा चुनाव का रोड मैप तैयार भू-कानून की मांग चुनावी वर्ष में बन सकता है
अगर धामी सरकार हिमाचल की तर्ज पर भू -कानून अध्यादेश जारी करेगी तो फिर से
2022 विधानसभा चुनाव में फतह हासिल कर सकती है। वैसे तो भू-कानून की मांग उत्तराखंड में समय-समय पर राजनीतिक और सामाजिक लोगों द्वारा उठाई जाती रही है. अब इस मुहिम में युवाओं का जुड़ना कहीं ना कहीं राजनीतिक पार्टियों के लिए भी कान खड़े करने वाली बात है. ऊपर से यह चुनावी साल है. जिससे अनुमान लगाया जा रहा है कि चुनावों में भी भू-कानून की मांग जोर पकड़ सकती है । युवा इस बात का पक्का विश्वास हो गया है कि पूर्व सीएम त्रिवेन्द्र सिंह रावत पहाड़ का विकास नहीं विनाश चाहते थे
उत्तराखंड में भू-कानून क्या है
भू- कानून का सीधा-सीधा मतलब भूमि के अधिकार से है. यानी आपकी भूमि पर केवल आपका अधिकार है न की किसी और का. जब उत्तराखंड बना था तो उसके बाद साल 2002 तक बाहरी राज्यों के लोग उत्तराखंड में केवल 500 वर्ग मीटर तक जमीन खरीद सकते थे. वर्ष 2007 में बतौर मुख्यमंत्री बीसी खंडूड़ी ने यह सीमा 250 वर्ग मीटर कर दी. इसके बाद 6 अक्टूबर 2018 को भाजपा के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत एक नया अध्यादेश लाए, जिसका नाम उत्तरप्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम,1950 में संशोधन का विधेयक था. इसे विधानसभा में पारित किया गया.इसमें धारा 143 (क), धारा 154(2) जोड़ी गई. यानी पहाड़ों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा को समाप्त कर दिया गया. अब कोई भी राज्य में कहीं भी भूमि खरीद सकता था. साथ ही इसमें उत्तराखंड के मैदानी जिलों देहरादून, हरिद्वार, यूएसनगर में भूमि की हदबंदी (सीलिंग) खत्म कर दी गई. इन जिलों में तय सीमा से अधिक भूमि खरीदी या बेची जा सकेगी.। भाजपा हो या कांग्रेस ये लोग बाहरी लोगों को बसाना चाहते है जब से उत्तराखंड राज्य का जन्म हुआ तब से आजतक उत्तराखंड क्रांतिदल भू- कानून की मांग करते आ रहे है अब प्रदेश के युवा इसे समझ गये है कि भू- कानून की जरूवत है।
क्या बाततें है आंकड़े उत्तराखंड की कुल कृषि भूमि
एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2000 के आंकड़ों पर नजर डालें तो उत्तराखंड की कुल 8,31,227 हेक्टेयर कृषि भूमि 8,55,980 परिवारों के नाम दर्ज थी. इनमें 5 एकड़ से 10 एकड़, 10 एकड़ से 25 एकड़ और 25 एकड़ से ऊपर की तीनों श्रेणियों की जोतों की संख्या 1,08,863 थी. इन 1,08,863 परिवारों के नाम 4,02,422 हेक्टेयर कृषि भूमि दर्ज थी.यानी राज्य की कुल कृषि भूमि का लगभग आधा भाग. बाकी 5 एकड़ से कम जोत वाले 7,47,117 परिवारों के नाम मात्र 4,28,803 हेक्टेयर भूमि दर्ज थी. ये आंकड़े दर्शाते हैं कि, किस तरह राज्य के लगभग 12 फीसदी किसान परिवारों के कब्जे में राज्य की आधी कृषि भूमि है. बची 88 फीसदी कृषि आबादी भूमिहीन की श्रेणी में पहुंच चुकी है.
क्या है हिमाचल का भू- कानून
हिमाचल के मुकाबले उत्तराखंड का भू कानून बहुत ही लचीला है इसलिए सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय लोग, एक सशक्त, हिमाचल के जैसे भू-कानून की मांग कर रहे हैं.। क्या है हिमाचल का भू-कानून1972 में हिमाचल में एक सख्त कानून बनाया गया. इस कानून के अंतर्गत बाहर के लोग हिमाचल में जमीन नहीं खरीद सकते थे. दरअसल, हिमाचल उस वक्त इतना सम्पन्न नहीं था. डर था कि कहीं हिमाचल के लोग बाहरी लोगों को अपनी जमीन न बेच दें. जाहिर सी बात थी कि वो भूमिहीन हो जाते. भूमिहीन होने का अर्थ है कि अपनी संस्कृति और सभ्यता को भी खोने का खतरा. हिमाचल के प्रथम मुख्यमंत्री डॉ. यशवंत सिंह परमार ये कानून लेकर आए थे. लैंड रिफॉर्म एक्ट 1972 में प्रावधान के तहत एक्ट के 11वें अध्याय में धारा -118 के तहत हिमाचल में कृषि भूमि नहीं खरीदी जा सकती. गैर हिमाचली नागरिक को यहां जमीन खरीदने की इजाजत नहीं है. कमर्शियल प्रयोग के लिए आप जमीन किराए पे ले सकते हैं.।
2007 में धूमल सरकार ने धारा-118 में संशोधन किया और कहा कि बाहरी राज्य का व्यक्ति, जो हिमाचल में 15 साल से रह रहा है, वो यहां जमीन ले सकता है. बाद में अगली सरकार ने इसे बढ़ा कर 30 साल कर दिया।