बिना चकबंदी के पहाड़ का विकास संभव नहीं: विनोद घड़ियाल राज्य आन्दोलनकारी
चकबंदी एवं भूमि व्यवस्था विधेयक सदन में पास कराकर मैनुवल तैयार कर आखिर लागू क्यों नहीं करते जिसे पहाड़ के बंजर होते खेत खलिहान आबाद हो सके व पलायन रूक सके ं यह सत्य है कि पहाड़ के कोई नेता चकबंदी व्यवस्था चाहते ही नहीं है। खुद पलायन की बात करने वाले नेता ही पलायन कर रहे है
इसलिए जरूरी है चकबंदी
-बिखरी जोत का होगा समान वितरण
-खेती का बेहतर प्रबंधन
-श्रम शक्ति और समय की बचत
-बंजर खेत फिर से होंगे आबाद
-पशुपालन बढ़ने से दुग्ध व्यवसाय बढ़ेगा
-पलायन पर लगेगा अंकुश
हल्द्वानी। 20 साल बीत गएकिसी भी सरकार ने पहाड़ के विकास के लिए कोई ठोस निर्णय नहीं ले पाये यह उत्तराखण्ड के लोगों के लिए के लिए र्दुभाग्य है बिना चकबंदी के पहाड़का विकास संभव नहीं है तभी पलाय भी रूकेगा ।
उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र की बिखरी जोत की तकदीर नहीं संवर पाई है। ऐसा नहीं कि इसका समाधान न हो ,चकबंदी को लेकर सरकारों का रवैया टालमटोल का ही रहा। पिछली सरकार के कार्यकाल में चकबंदी एवं भूमि व्यवस्था विधेयक सदन में पास हुआ, मगर अभी इसकी नियमावली (मैनुअल) तैयार नहीं हो पाई है। मौजूदा सरकार भी अलग कही राग अपना रही है प्रकाश पंत कहते है कि पलायन पर गंभीर चर्चा होनी चाहिए अरे भई पहाड़ में जाओं वहां पर वहां के लोगों के बीच चर्चा रखें कैसे पलायन रूकेगा बंद एसी कमरों के बीच व ऐसे विचारकों के बीच आप चर्चा कर रहे है जिन्होने कभी पहाड़ की जीवन शैली देखी ही नहीं आप ऐसे लोगों से पलायन की समस्या पर बोलने के लिए आमत्रिंत कर रहे है पहिले आप तो पलायन न हो । नेता तो पहिले पलायन हो रहे तो जिनके पास रोजगार नहीं है उनहें कह रहे कि पलायन मत करों यह किस तरह के विचारधारक है।
राज्य में खेती के हालात किसी से छिपे नहीं हैं। मैदानी इलाकों में खेत शहरीकरण की भेंट चढ़ रहे तो पर्वतीय क्षेत्रों में पलायन के चलते गांव खाली हो रहे और खेत वीरान। अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि राज्य में बंजर भूमि का रकबा बढ़कर 3.66 लाख हेक्टेयर पहुंच गया है। इसमें एक लाख हेक्टेयर खेत तो गुजरे 16 साल में बंजर हुए। दरअसल, पहाड़ में लोगों के खेती से विमुख होने का बड़ा कारण, जोत का बिखरा होना है। किसानों की छोटी-छोटी जोत कई स्थानों पर बिखरी हैं, जिससे इनके प्रबंधन में दिक्कतें आने के साथ ही यह कृषि के लिए आर्थिक रूप से उपयुक्त नहीं हैं। चकबंदी के जरिए खेतों का समान वितरण ही समस्या का एकमात्र समाधान है। इससे जहां खेती का बेहतर प्रबंधन होगा, वहीं श्रम शक्ति व समय की बचत भी होगी। ठीक है कि भूमि के बंटवारे में कुछ दिक्कतें आ सकती हैं, मगर ये ऐसी नहीं कि इनका निदान न हो सके। सियासतदां भी इससे इत्तेफाक रखते हैं और इसीलिए राज्य गठन के बाद से ही चकबंदी की बात उठती आई है, लेकिन गंभीर पहल करने में सियासत हिचकिचाती आई है।
पिछली सरकार ने पर्वतीय क्षेत्र के लिए चकबंदी एवं भूमि व्यवस्था विधेयक पास तो किया, लेकिन बात इसके मैनुअल पर अटकी हुई है। यह नियमावली बन रही अथवा नहीं, इस बारे में पिछले आठ माह से सरकार और शासन की ओर से कोई जानकारी नहीं दी जा रही। उनके मुताबिक मौजूदा सरकार के नुमाइंदे कभी स्वैच्छिक तो कभी आंशिक चकबंदी की बात कर रहे हैं। इससे भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है। वह कहते हैं कि सरकार यदि वास्तव में पहाड़ों का भला चाहती है तो उसे नियमावली तैयार कर चकबंदी लागू करनी चाहिए ताकि बंजर खेत आबाद हो सके और पहाड़ में बागवानी को बढ़वा देकर पलायन कम किया जा सकता है इसके लिए सरकार को सीघ्र निर्णय लेना चाहिए जिसे पहाड़ की खेती दूबारा से आबाद हो सके ।