आरक्षण एक अभिशाप, देश से प्रतिभा का पलायन हो रहा है
सामान्य वर्ग में कई छात्र ऐसे हैं, जो इस महंगी शिक्षा के दौर में किसी कोचिंग में प्रवेश लेने की क्षमता नहीं रखते हैं, बावजूद इसके वो अच्छे नंबर लाने के बाद भी चयनित नहीं हो पाते और आरक्षित वर्ग के छात्र कम नंबर लाकर भी चयनित हो जाते हैं। ऐसे में इस पूरे मुद्दे ने आरक्षण के मुद्दे को एक सकारात्मक बहस के लिए खोल दिया है।
दरअसल, आरक्षण का मतलब ही सामाजिक न्याय, समरसता और बराबरी का दर्जा देना है और इस बात पर जोर देना है कि सामाजिक और आर्थिक विषमताओं को कैसे कम किया जाए। इसके लिए बाकायदा नौकरियों एवं शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की व्यवस्था की गई।
ऐतिहासिक कारणों से जो वर्ग पिछड़ गया, उसे चिन्हित किया गया, लेकिन इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्रभावकारी एवं गतिशील नीतियों के अभाव में इसका नतीजा, ढाक के तीन पात ही रहा। होना तो यह चाहिए था कि हर वर्ग में जो व्यक्ति आरक्षणष् का लाभ लेकर आगे बढ़ गए उन्हें फिर से लाभ नहीं मिलना चाहिए। उन्हें खुद ही अपने वर्ग के दूसरे लोगों के लिए अपना दावा खत्म कर देना चाहिए। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया और इसके लिए जितना दोष सरकार को दिया उतना ही लोगों की मानसिकता को। जाहिर है ऐसे में अगर आरक्षण को खत्म किया जाता है, तो उन्हे समाज के मुख्यधारा में लाना इतना आसान नहीं रह जाएगा।
देखा जाए तो सार्वजनिक तौर पर कोई भी आरक्षण के बारे में खुलकर बात नहीं करता। इसे सत्ता लोलुपता कहें या सत्ता खोने का डर, समकालीन राजनीतिक परिदृश्य में भी किसी नेता ने आरक्षण के लिए एक नये सिरे से बहस की हिम्मत नहीं दिखाई है। कुल मिलाकर यह एक राजनैतिक हथकंडा है, जिसे पार्टियां चुनाव के समय अपनाती है। चूंकि यह मुद्दा सीधे-सीधे जनाधार और वोट बैंक से जुड़ा है, इसलिए हर राजनीतिक पार्टी इस मुद्दे पर हमेशा से सावधानी बरतती रही है। वोट बैंक की राजनीति के लिए आरक्षण का खेल खेलना देश और समाज में अस्थिरता और अव्यवस्था को बढ़ावा देता है।
1882 में हंटर कमीशन से शुरू हुई इस आरक्षण प्रणाली का 1932 में अंग्रेजों ने अपनी सत्ता का प्रयोग करते हुए एक सांप्रदायिक बंटवारे के तहत दलितों और अन्य धर्मों को बांटने के लिए किया था। महात्मा गांधी ने इसकी कड़ी मुखालफत की, लेकिन अंततः वह इस मुद्दे पर अंबेडकर के साथ समझौते के लिए तैयार हो गए।
आरक्षण की लड़ाई में संविधान सभा में एक वोट की कमी से आरक्षण प्रस्ताव पारित नहीं होने पर डॉ. अम्बेडकर के सामने ैब्ध्ैज् को आरक्षण देने संबंधी गंभीर समस्या उत्पन्न हो गई थी, लेकिन आंबेडकर ने अपनी तर्कशक्ति का प्रयोग कर धारा 10 में संशोधन करने में कामयाब रहे, जिसका परिणाम आरक्षण है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है। बशर्ते, यह साबित किया जा सके कि वे औरों के मुकाबले सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं। 1950 में 10 साल (1960 तक) तक ैब् के लिए ,15 साल तक ैज् के लिए 7.5ः आरक्षण की बात कही गई थी। धीरे-धीरे इसे खत्म करने की बजाय वर्ष 1993 में मंडल कमीशन की सिफारिश पर इसमें और इजाफा करते हुए व्ठब् को भी शामिल कर लिया गया। ैब् और ैज् के कुल 22.5ः आरक्षण के बाद व्ठब् को भी 27ः आरक्षण दे दिया गया।इसी सिफारिश के तहत आरक्षण के आधार को भी परिभाषित किया गया। आरक्षण के इन प्रावधानों को लगातार बढ़ाते हुए अब 2020 तक कर दिया गया है। पिछले 65 साल में मदद का यह रवैया न केवल बढ़ता गया है, बल्कि इसका दायरा और स्तर भी इतना बढ़ चुका है, जितना कि हमारे संविधान निर्माताओं ने कल्पना तक न की होगी। इधर, इन सबके बीच सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में जाट आरक्षण पर केंद्र के फैसले को अवैध करार देते हुए अपने ऐतिहासिक फैसले संविधान के अनुच्छेद 15(4) और 16(4) की फिर से व्याख्या करते हुए साफ किया कि देश की आरक्षण नीति से जुड़े तमाम पहलुओं पर गंभीरता के साथ चर्चा हो। प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए अगर लिंग, समुदाय या क्षेत्र आधारित आरक्षण दिया जाता है, तो उसे गलत नहीं कहा जा सकता, लेकिन आरक्षण के इस प्रावधान के तहत योग्यता को दरकिनार करने का ही परिणाम है कि ब्रेन ड्रेन को लगातार बढ़ावा मिल रहा है।इसी विषय पर 1970 में टिप्पणी करते हुए पूर्व वाणिज्य सचिव और अमेरिका में राजदूत आबिद हुसैन ने कहा था प्रतिभा के नष्ट होने से बेहतर है कि वह पलायन कर जाए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आरक्षण व्यवस्था का उद्देश्य जाति पर जोर देना नहीं, जाति को खत्म करना था। समय के साथ आरक्षित वर्ग के भीतर एक अभिजात्य वर्ग ने पैठ जमा ली और सामाजिक न्याय के फायदों को निचले तबके तक पहुंचने से रोक दिया। अपनी राजनीतिक ताकत का इस्तेमाल करते हुए इस वर्ग ने आरक्षण की पात्रता पर होने वाली हर बहस को कमजोर किया।