कहां गया हर्बल प्रदेश का सपना
सत्ता में बैठे नेताओं ने कहा था कि हमें विरासत में अपार जड़ी बूटी का भंडार मिला हुआ है इसमें नये शोध किए जायेगें अनुसंधान केन्द्र खोले जायेगें और हर्बल प्रदेश के रूप में उत्तराखण्ड उभर कर आयेगा । प्रदेश की जनता को हर बार धोखा ही धोखा मिला और कुछ नहीं ।
सरकार से लेकर शासन तक प्रशासन से लेकर जिम्ेदार तंत्र अक्सर यह राग अलापने नहीं थकने कि उत्तराखण्ड को हर्बल प्रदेश बनायेगें ,लेकिन हकीकत यह है कि आज तक इस दिशा में दो कदम भी सूबा आगे नहीं बढ़ पाया है। ऐसा नहीं कि इस मुहिम को गति देने को तामझाम है ,लेकिन अभाव है तो मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति का । कई बार सत्ता में बैठे नेताओं ने कहा था कि हमें विरासत में अपार जड़ी बूटी का भंडार मिला हुआ है इसमें नये शोध किए जायेगें अनुसंधान केन्द्र खोले जायेगें और हर्बल प्रदेश के रूप में उत्तराखण्ड उभर कर आयेगा । 1989 में बना जड़ी – बूटी शोध एवं विकास संस्थान चमोली की मंडल घाटी से आगे नहीं निकल पाया है।इस सबके लिए सरकारी उदासीनता ही जिम्मेदार है। स्थिति यह है कि संस्थान में करोड़ो की मशीनें जंक खा रही है। जानकारों की माने तो जड़ी – बूटी के मामले में थोड़े से प्रयास हो तो इससे आर्थिकी संवर सकती है। बंजर भूमि मेूं तब्दील होती खोती में जड़ी बूटी की खेती से जहां हरियाली लौटेगी ,वहीं पर्यावरण संरक्षण के साथ ही किसानों की आर्थिक दशा भी सुधरेगी
पिथौरागढ़ । उत्तराखण्ड को अस्तित्व में आए 21 वां साल लग े चुका है लेकिन इसे हर्बल प्रदेश बनाने का ख्वाब अभी तक आकार नहीं ले पाया है। वह भी तब जबकि जैवविविधता के मामले में धनी इस प्रदेश में जड़ी -बूटियों का विपुल भंडार मौजूद है, लेकिन हम इसे अभी तक आर्थिकी का जरिया नहीं बना पाए है। यह बात अलग है कि इस संपदा का बड़े पैमाने पर अवैध दोहन अवश्य हो रहा है। हालाकिं सरकार से लेकर शासन तक प्रशासन से लेकर जिम्ेदार तंत्र अक्सर यह राग अलापने नहीं थकने कि उत्तराखण्ड को हर्बल प्रदेश बनायेगें ,लेकिन
हकीकत यह है कि आज तक इस दिशा में दो कदम भी आगे नहीं बढ़ पाया है। ऐसा नहीं कि इस मुहिम को गति देने को तामझाम है ,लेकिन अभाव है तो मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति का । कई बार सत्ता में बैठे नेताओं ने कहा था कि हमें विरासत में अपार जड़ी बूटी का भंडार मिला हुआ है इसमें नये शोध किए जायेगें अनुसंधान केन्द्र खोले जायेगें और हर्बल प्रदेश के रूप में उत्तराखण्ड उभर कर आयेगा । 1989 में बना जड़ी – बूटी शोध एवं विकास संस्थान चमोली की मंडल घाटी से आगे नहीं निकल पाया है। यद्यपि मंडल घाटी में भी तस्वीर ऐसी नहीं ,जिससे पीठ थपथपाई जा सके । जड़ी बूटी का जो उत्पादन है ,वह नगण्य ही है। ऐसे में समझा जा सकता है कि सूबे के अन्य जिलों में जड़ी -बूटी कृषिकरण की पहल कैसे आगे बढ़ रही है। यह स्थिति तब है, जबकि हर साल ही जड़ी बूटी के कृषिकरण और शोध कार्य समेत अन्य मदों में लाखें की धनराशि खर्च की जा रही है। , लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही है। इस सबके लिए सरकारी उदासीनता ही जिम्मेदार है। स्थिति यह है कि संस्थान में करोड़ो की मशीनें जंक खा रही है।
जानकारों की माने तो जड़ी – बूटी के मामले में थोड़े से प्रयास हो तो इससे आर्थिकी संवर सकती है। बंजर भूमि मेूं तब्दील होती खोती में जड़ी बूटी की खेती से जहां हरियाली लौटेगी ,वहीं पर्यावरण संरक्षण के साथ ही किसानों की आर्थिक दशा भी सुधरेगी, लेकिन इस दिशा में अब तक गंभीरता से कदम उठाने की जरूवत नहीं समझी जा रही । परिणामस्वरूप हर्बल प्रदेश का सपना आज भी अधूरा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि राज्य सरकार आर्थिकी संवारने के मदद्ेनजर जड़ी – बूटी कुषिकरण के प्रयासों को गति देने को ठोस कदम उठाएंगी । साथ ही जड़ी बूटी कृषिकरण के प्रयायों को गति देने को ठोस कदम उठाएगी । साथ ही जड़ी – बूटी शोध एवं विकास संस्थान को सक्रिय करेगी ,ताकि यह पहल पूरे प्रदेशभर में फैले ।