कोरोना काल में लौटे प्रवासियों को रोक पाएगा उत्तराखंड?
उत्तराखंड में एक कहावत प्रचलित है कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ में नहीं रहती, बह कर मैदानों में चली जाती है। लेकिन कोरोना काल में जब छोटे-बड़े शहरों में काम बंद हो गए तो पहाड़ की जवानी पहाड़ वापस लौटी है। उत्तराखंड के अधिकृत आंकड़ों के मुताबिक 3.30 लाख प्रवासी उत्तराखंड लौटे हैं। राज्य सरकार का दावा है कि प्रवासियों को राज्य में रोका जाएगा, लेकिन क्या यह संभव है?
वर्तमान में जो युवा बड़े शहरों से लौटे हैं, उनमें से काफी युवा वापस आना चाहते हैं, लेकिन कुछ युवा शहरी जिंदगी परेशान से आकर पहाड़ों में काम करना चाहते हैं। वह अब गांव में अपनी जमीन आम और लीची के बाग लगाना चाहते हैं, उन्होनें बताय कि अभी तक सरकार की ओर से कोई सहयोग नहीं मिला है। कई बार सरकारी दफ्तरों के चककर लगाए कुछ भी हासिल नहीं हुआ ।जब देश में कोरोनावायरस संक्रमण फैला और प्रवासियों ने अपने गांव की ओर रुख किया तो उत्तराखंड सरकार, जो पहले से लगातार दावा कर रही थी कि वे पलायन को रोकने की दिशा में काफी काम कर रही है के लिए यह चुनौती बन गया कि जो प्रवासी अब वापस आ रहे हैं। उन्हें रोका कैसे जाए? इसलिए राज्य के मुख्यमंत्री बताते हैं कि प्रवासियों को रोकने के लिए राज्य में कई योजनाओं की शुरुआत की गई है। अब सवाल यही है कि जो लोग अब उत्तराखंड में रहना चाहते हैं, उनके लिए सरकार को क्या करना चाहिए। अगर ये प्रवासी यहां सफल रहते हैं तो उन्हें रोल मॉडल की तरह प्रस्तुत करके सरकार अगले पांच साल में 50 फीसदी प्रवासियों को वापस बुलाने में कामयाब हो सकती है।
बागेश्वर/अल्मोड़ा/पिथौरागढ़। 2011 की जनगणना के मुताबिक उत्तराखंड के कुल 16 हजार 793 गांवों में 1048 गांव निर्जन हो चुके थे। यानी इन गांवों में कोई नहीं रहता और इन्हें घोस्ट विलेज या भुतहा गांव घोषित कर दिया गया। इसके बाद सितंबर 2019 में उत्तराखंड ग्रामीण विकास और पलायन आयोग की एक रिपोर्ट आई, जिसमें कहा गया कि 2011 और 2018 के बीच 734 गांव और निर्जन हो गए।
2020 में कोरोना के कारण क्या गांवों में कुछ बदलाव आया है। जब जानकारी हासिल की गई तो गांव में कुछ लोग काम करते दिखाई देते। जिन घरों में अकेले बृद्व लोग रहते थे वहां लॉकडाउन के चलते जब बड़े शहरों में काम बंद हो गया तो उनके बेटे अपने परिवार के साथ लौट आए हैं। उनके पास कोई रोजगार न होने वे मनरेगा में काम करने लगे ताकि परिवार का खर्चा चलें हालांकि कि मनरेगा के काम से परिवार नहीं चलने वाला। इसलिए अगर सरकार यहां रोजगार के साथ-साथ बच्चों के बेहतर भविष्य का भरोसा दिलाए तो वे लोग कोरोना खत्म होने के बाद भी रह सकते हैं, लेकिन अभी फिलहाल जो स्थिति है, उससे उनके पास दोबारा वहां से पलायन के अलावा कोई नहीं रास्ता दिखता।
दरअसल, जो युवा बड़े शहरों से लौटे हैं, उनमें से काफी युवा वापस आना चाहते हैं, लेकिन कुछ युवा शहरी जिंदगी परेशान से आकर पहाड़ों में काम करना चाहते हैं। वह अब गांव में अपनी जमीन आम और लीची के बाग लगाना चाहते हैं, उन्होनें बताय कि अभी तक सरकार की ओर से कोई सहयोग नहीं मिला है। कई बार सरकारी दफ्तरों के चककर लगाए कुछ भी हासिल नहीं हुआ ।जब देश में कोरोनावायरस संक्रमण फैला और प्रवासियों ने अपने गांव की ओर रुख किया तो उत्तराखंड सरकार, जो पहले से लगातार दावा कर रही थी कि वे पलायन को रोकने की दिशा में काफी काम कर रही है के लिए यह चुनौती बन गया कि जो प्रवासी अब वापस आ रहे हैं। उन्हें रोका कैसे जाए? इसलिए राज्य के मुख्यमंत्री बताते हैं कि प्रवासियों को रोकने के लिए राज्य में कई योजनाओं की शुरुआत की गई है। अब सवाल यही है कि जो लोग अब उत्तराखंड में रहना चाहते हैं, उनके लिए सरकार को क्या करना चाहिए। अगर ये प्रवासी यहां सफल रहते हैं तो उन्हें रोल मॉडल की तरह प्रस्तुत करके सरकार अगले पांच साल में 50 फीसदी प्रवासियों को वापस बुलाने में कामयाब हो सकती है।
कोविड-19 वैश्विक आपदा उत्तराखंड के लिए एक अवसर लेकर जरूर आई है, लेकिन सरकार के प्रयास और जमीनी हकीकत में काफी अंतर दिखता है। अभी चूंकि हालात सामान्य नहीं हुए हैं, इसलिए बहुत से प्रवासी सामान्य होने का इंतजार कर रहे हैं तो कई प्रवासी अपने गांव में ही अपना करियर तलाशने के लिए उत्साहित हैं। अगर इस मौके पर केवल 5 फीसदी प्रवासियों को रोकने में सरकार सफल रहती है और ये प्रवासी अगले पांच साल के दौरान यहीं अपनी नई इबारत लिख लेते हैं तो इन 5 फीसदी प्रवासियों की देखादेखी 50 फीसदी प्रवासी वापस लौट सकते हैं।